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सिसौदिया जी! ये उत्तराखंड की जनता है, आप के झांसे में नहीं आने वाली

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देहरादून। दिल्ली तक सीमित आम आदमी पार्टी इन दिनों उत्तराखंड की जनता पर डोर डालने का काम कर रही है। पहाड़ी प्रदेश के लोगों की छवि क्योंकि भोलेभाले लोगों की है तो संभवतः केजरी सेना को लगने लगा कि यहां के लोगों को बहका देंगे। इसके लिए केजरी सेना ने जोर तो पूरा लगा रखा है लेकिन धरातल पर इसका असर नजर नहीं आता। बीते एक पखवाड़े से आम आदमी पार्टी के सिपेहसालार त्रिवेंद्र माॅडल बनाम केजरी माॅडल का खेल खेलने की कोशिश में जुटे हैं लेकिन इस खेल की भी आज हवा निकल गई। उत्तराखंड सरकार ने तो इस बहस को तव्वजो दी ही नहीं उल्टा आमजन ने भी इसमें दिलचस्पी लेना मुनासिब नहीं समझा।

दरअसल, आम आदमी पार्टी को लगता है कि उत्तराखंड की भोलीभाली जनता को वह बना जाएंगे लेकिन जनाब जिस जनता को आप भोलाभाला समझ रहे हैं वह दिल से जरूर भोलेभाले हैं लेकिन दिमाग से पूरी तरह परिपक्व हैं। बीस वर्ष के उत्तराखंड के राजनीतिक इतिहास को भी देखें तो प्रदेश के लोगों ने इस मामले में भी हमेशा परिपक्वता दिखाई। यहां की जनता ने जब भी किसी पर भरोसा जताया तो पूरी तरह जताया। यहां किसी तीसरे के लिए कभी जगह तो दूर गुंजाइश भी नहीं रखी।

यही वजह भी है कि उत्तराखंड की समझदार आवाम बीते कुछ महीनों से आम आदमी पार्टी द्वारा रोज नए शिगूफे छोड़ने के बावजूद उनके छलावे में नहीं आई। देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंहनगर में आप ने अपना जोर तो लगा रहा है लेकिन आम जन के दिलोंदिमाग पर इसका असर कहीं नहीं दिखता। केवल चंद आम आदमी पार्टी कार्यकर्ता दिल्ली माॅडल दिल्ली माॅडल चिल्लाने का काम कर रहे हैं।

यही शोर सोशल मीडिया के जरिए भी मचाने का प्रयास हो रहा है लेकिन तव्वजो कहीं नहीं मिली। जब कुछ नहीं हुआ तो दिल्ली सरकार के शिक्षा मंत्री की अगुवाई में आप पार्टी ने एक नया प्रपंच रचा। इसके लिए उन्होंने खुद की बहस की बात छेड़ दी कि हम बताएंगे कि दिल्ली और उत्तराखंड माॅडल में कौन बेहतर है। आज उस कथित ड्रामे को अंजाम तक पहंचाने के लिए मंच भी सजा लिया गया लेकिन आम आदमी के इरादों की हवा आज आम आदमी ने ही निकाल डाली। देहरादून के लोगों ने इस कथित डिबेट में कोई दिलचस्पी नहीं ली। मुट्ठीभर आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता ड्रामे के लिए कुछ देर तक आडिटोरिम में जुटे और सिसौदिया की हवा-हवाई बातें सुनते रहे। आमजन का इस डिबेट में दिलचस्पी न लेना यह दर्शाता है कि वास्तव में उत्तराखंड के आम आदमी को इन्हें सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

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